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तत्त्व का सार
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥५०॥
जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्वका सार।
अन्य कछू व्याख्यान जो, याही का विस्तार ॥५०॥
अर्थः “जीव शरीरादिक से भिन्न है, शरीरादिक जीव से भिन्न है” । निश्चय से समस्त तीर्थंकरों-गणधरों की वाणी का सार यही है। इसी में सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाप-पुण्य व शुद्धात्मा की अनुभूति समाहित है। इसके अलावा जितना भी जिनवाणी का कथन है, वह इसी का विस्तार मात्र है।
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Gatha