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संसार: एक इन्द्रजाल
निशामयति निश्शेषमिन्द्रजालोपमं जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ॥३९॥
इन्द्रजाल सम देख जग, निज अनुभव रुचि लात।
अन्य विषय में जात यदि, तो मन में पछतात ॥३९॥
अर्थ: विश्व में सबसे बड़ा सुख का केंद्र और सत्य तो अपना शुद्धात्मा ही है। जिसे इस सत्य तत्त्व का भावभासन हो गया ऐसे योगी को; तथा जिसने समस्त परिग्रह का त्याग करके एक शुद्धात्मा को ही निज संपत्ति मान लिया हो, उसे समस्त लोक इंद्रजाल में प्रस्तुत सर्पहार की भांति मिथ्या प्रतीत होता है। यदि किसी अन्य विषय भोगों में प्रवृत्ति करे तो मन-वचन-काय से उनका त्याग करके पश्चाताप करता है कि उन विषयों में पड़कर ये मैंने शुद्धात्मा का कैसा अहित कर दिया।
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