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संसारी प्राणी दूसरों का दुःख देखता है।
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते ।
दह्यमान - मृगाकीर्ण - वनान्तर - तरुस्थवत् ॥१४॥
पर की विपदा देखता, अपनी देखे नाहिं।
जलते पशु जा वन विषै, जड़ तरूपर ठहराहिं ॥१४॥
अर्थः एक बार एक व्यक्ति जंगल पहुँचा और एक ऊंचा सा पेड देखकर उसपर चढ गया, जंगल की शान्ति और शीतल वातावरण में उसे नींद आयी और वह सो गया। कुछ देर बाद अचानक उसकी आँख खुलती है और वह देखता है कि पूरे जंगल में भयंकर आग लग चुकी है, सभी पशु-जानवर इधर-उधर भाग रहे हैं, चारो ओर अग्नि की भीष्ण ज्वालायें उठ रही हैं परन्तु उसे लगता है कि ये पशु ही अग्नि में झुलस रहे हैं, मै तो इतने ऊपर पेड पर आराम से बैठा हूँ, मुझे तो इस अग्नि से खतरा नही है।
इसीप्रकार इस जीव को अपने चारो ओर रहने वाले जीवों की तो चिंता है, वह उन्हें तो विपदा में देखता है परन्तु स्वयं इन विषय-भोग रूपी विपत्तियों के चक्र में दुखी है वह नही जानता। इस चक्र में ही सुख का भ्रम लेकर इसी में फसा रहता है।
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Gatha