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मोहावृत ज्ञान वस्तु – स्वरूप नहीं जानता
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥७॥
मोहकर्म के उदय से, वस्तुस्वभाव न पात।
मदकारी कोदों भखें, उल्टा जगत लखात॥७॥
अर्थ: लोक में प्रसिद्ध है कि नशीली वस्तु खाने से नशा ही पैदा होगा और नशे में धुत्त व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है। वह जाने हुए पदार्थों को भी भूल जाता है, जानने में आने वाले पदार्थों का भी ठीक प्रकार से ज्ञान नही कर पाता अर्थात इस नशे के कारण ज्ञानवान पुरुष भी अज्ञानियों की भाँति आचरण करता है।
ठीक उसीप्रकार आत्मा व उसका ज्ञानगुण यद्यपि अमूर्त है फिर भी मूर्तिमान कर्मादि से मिलकर वह गुण भी पत्थर की भाँति आवरणित हो जाते हैं। जिसकारण अपने से प्रत्यक्ष भिन्न जड पदार्थों में जीव अपनत्व करता है, उनका वियोग होने पर खेद-खिन्न होता है, ज्ञानियों द्वारा समझाये जाने पर भी पथभ्रष्ट होकर अज्ञानी की भांति आचरण करता है।
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