इन्द्रिय सुख-दुःख भ्रान्ति मात्र
वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् ।
तथा ह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ॥६॥
विषयी सुख-दुख मानते, है अज्ञान प्रसाद।
भोग रोगवत् कष्ट में, तन मन करत विषाद॥६॥
अर्थ: आश्चर्य है कि एक पक्षी का जोडा तपती धूप में भी एक-दूसरे के साथ रहने पर संतोष से रहता हैं लेकिन जब रात्रि के समय उनमें से एक का भी वियोग हो जाता है तो मानो चन्द्रमा की शीतल किरणे भी उनके मन के संताप को दूर नही कर पाती, उनका हृदय दूसरे के वियोग से संतप्त रहता है, आकुलित हो उठता है।
इससे पता चलता है कि इन इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला यह सुख मात्र वासना ही है, भ्रम ही है, अनाकुल एवं वास्तविक नही हैं। हम भी जिस इन्द्रिय सुख के पीछे दिन-रात एक कर देते हैं, न्याय-विवेक के बिना बस इन भोगों की ही चाह में लगे रहते हैं उन भोगों से प्राप्त सुख की दास्तान का अंत वियोग पर ही होता है, ये सुख ये भोग; रोग आने पर, अनिष्ट संयोग होने पर या व्यवधान आने पर निश्चित ही दूर हो जाते हैं। अतः देहधारियों का सुख व दुख; दोनो ही कल्पनामात्र है, वास्तविक सुख तो आत्मस्वभाव में ही है।