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ध्यान का फल
आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम्।
न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दुःखेष्वचेतनः ॥४८॥
निजानंद नित दहत है, कर्मकाष्ठ अधिकाय।
बाह्य दुःख नहिं वेदता, योगी खेद न पाय ॥४८॥
अर्थः जैसे अग्नि ईंधन को सर्वथा भस्म कर देती है, अग्नि के सम्पर्क से ईंधन के सर्वगुणों का नाश हो जाता है, उसका बल अथवा शक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं; उसीप्रकार आत्मा में उत्पन्न निजानन्द, हमेशा से चले आये प्रचुर कर्मों की सन्तति को जला डालता है, आत्मप्रदेशों से उनका सर्वथा अभाव कर देता है। उस आनन्द से सहित योगी बाहरी उपसर्ग-परिषहों के क्लेश के अनुभव से भी रहित हैं, वे कदापि खेद को प्राप्त नही होते।
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Gatha