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पुरुषार्थ स्व में…
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्।
अतएव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ॥४५॥
पर पर तातें दुःख हो, निज निज ही सुखदाय।
महापुरुष उद्यम किया, निज हितार्थ मन लाय ॥४५॥
अर्थः यह देह कभी अपनी नही हो सकती, इसे कभी आत्मा के सदृश नही बनाया जा सकता। वास्तव में इसके स्वभाव में ही कुरूपता है, मिथ्यापना है। परन्तु इस सत्य को स्वीकार करने वाले बहुत थोडे हैं, जो इसे स्वीकारते हैं वे निराकुल होते हैं परन्तु जो इसे स्वीकार ना करके उसी के पालन-पोषण में लगे रहते हैं वे सदा दुखी रहते हैं। इसलिये तीर्थंकर आदिक महापुरुषों ने स्वरूप में स्थिर होने के लिये अनेक प्रकार के तप आदि करने में निद्रा-आलस्य रहित अप्रमत्त स्वभाव की उत्कर्षता को ही साधा है।
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Gatha