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निर्विकल्प योगी
किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वेत्यविशेषयन् ।
स्वदेहमप नावैति योगी योगपरायणः ॥४२॥
क्या कैसा किसका किसमें, कहाँ यह आतम राम।
तज विकल्प निज देह न जाने, योगी निज विश्राम ॥४२॥
अर्थः जो विकल्पों में उलझेगा उसका भव कभी नही सुलझेगा इस यथार्थ अभिज्ञान को हृदय में धारण करने वाले वीतरागी मुनिराज; यह स्वरूप किसका है? किसके समान है? इसका स्वामी कौन? यह किससे होता है? कहाँ इसका निवास है? इत्यादि किसी भी प्रकार के विकल्प में उलझे बिना समरसी शुद्धात्मा के ही रसास्वादन में लीन हैं। उन्हें अपने शरीर तक की चिन्ता नही है तो शरीर से भिन्न वस्तुओं की तो बात ही क्या?
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