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एकान्त प्रिय योगी
इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः ।
निजकार्यवशात्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् ॥४०॥
निर्जनता आदर करत, एकांत सवास विचार।
निज कारजवश कुछ कहे, भूल जात उस बार ॥४०॥
अर्थ: जिन्हें आत्मा प्रिय है उन्हें न जगत और ना ही जगत का प्रपंच ही प्रिय हो सकता है। जो मनोरंजन की वांछा लिये स्वार्थ वश आये भक्तों को तन्त्र-मंत्र इत्यादि मिथ्या प्रपंचों में उलझाते हैं व सांसारिक लाभ-अलाभ की चर्चा में जिनका उपयोग लगता है वे सच्चे साधु नही। जिन्हें एकमात्र शुद्धात्मा की ही रुचि है ऐसे साधु निर्जन पर्वत वनादिक में व गुफा-कन्दराओं जैसे एकान्त स्थान में ही निवास करते हैं।
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Gatha