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भोग अरुचिकर है
यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।
तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥३८॥
जस जस विषय सुलभ्य भी, ताको नहीं सुहाय।
तस तस आतम तत्त्व में, अनुभव बढ़ता जाय ॥३८॥
अर्थ: सत्य ही है, जैसे-जैसे विषय भोगों के प्रति रूचि घटती जाती है, वैसे-वैसे योगी की आत्मानुभवन की परिणति वृद्धि को प्राप्त होती है। अतः हे वत्स! व्यर्थ के कोलाहल से क्या लाभ? बस एक बार एकांत में निवास करके छह मास निजात्मा का अवलोकन तो कर। फिर देख! आत्मा रूपी सरोवर में जड़ से भिन्न शुद्धात्मा की उपलब्धि कैसे नहीं होगी? अर्थात अवश्य होगी।
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Gatha