Title
मोह ना छूटने का कारण
कर्म कर्म - हिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः ।
स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थं को वा न वाञ्छति ॥३१॥
कर्म कर्महितकार है, जीव जीवहितकार।
निज प्रभाव बल देखकर, को न स्वार्थ करतार ॥३१॥
अर्थः जीव और कर्मों का अनादिकालीन बैर है, कभी जीव बलवान हो जाता है तो कभी कर्म बलवान हो जाते हैं। जीव के द्वारा किये गये परिणाम जो कि निमित्त मात्र है, उसे प्राप्त करके जीवसे विभिन्न पुद्गल, स्वयं कर्मरूप परिणम जाते हैं। अब जीव तो जीव का ही हित चाहता है और कर्म, कर्म का; सो ठीक ही है। पूर्व में संचित कर्म, नवीन द्रव्यकर्मों की सन्तति में कारण है और भविष्य में वे ही आगे नवीन कर्मों की उत्पत्ति के कारण बनेंगे। यदि समय रहते जीव नही चेतता तो ये सन्तति कभी अन्त नही होगी, यह दुख कभी समाप्त नही होगा।
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Gatha