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कोई न कोई विपत्ति मौजूद ही रहती है
विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते ।
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुराः विपदः पुरः ॥१२॥
जबतक एक विपद टले, अन्य विपद बहु आय।
पदिका जिमि घटियंत्र में, बार बार भरमाय ॥१२॥
अर्थः एक किसान कूएँ से सिंचाई हेतु पानी निकालने के लिये घटियंत्र को अपने पैरों से चलाता है, एक पटली पर पैर रखता है तो दूसरी ऊपर आ जाती है, दूसरे पर पैर रखता है तो तीसरी ऊपर आ जाती है, ये पूरी प्रक्रिया उसकी इच्छानुसार ही हो रही है। यदि वह ऐसा करना ना चाहे और इस पदावर्त के चक्र से बाहर निकलना चाहे तो कौन रोकने में समर्थ है?
हे जीव! यह संसार भी घटियंत्र जैसा ही है। इस संसार में एक विपत्ति दूर करते ही तुरंत ही अन्य अनेक विपत्तियाँ उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में तो ये इच्छायें ही विपदा है। इनका निवारण भी तेरे ही हाथ में है। इसलिए संसार अवश्य ही नाश करने योग्य है। जरा विचार कर!
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Gatha