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Title

Samaysaar - Gatha No. 237,241,242

जैसे कोई पुरुष (अपने शरीर में) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी धूलवाले स्थान में रहकर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है तथा ताड़, तमाल, केल, बाँस, अशोक इत्यादि वृक्षों को छेदता है, भेदता है, सचित्त तथा अचित्त द्रव्यों का उपघात (नाश) करता है। इस प्रकार नाना प्रकार के कारणों के द्वारा उपघात करते हुए उस पुरुष के धूल का बन्ध (चिपकना) वास्तव में किस कारण से होता है यह निश्चय से विचार करो। उस पुरुष में जो वह तेल आदि की चिकनाहट है, उससे उसे धूल का बन्ध होता है (चिपकती है)-ऐसा निश्चय से जानना चाहिए, शेष शारीरिक चेष्टाओं से नहीं होता।

इसीप्रकार मिथ्यादृष्टि अपने में रागादिक करता हुआ, स्वभाव से ही जो बहुत से कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ है, ऐसे लोक में काय-वचन-मन का कर्म (क्रिया) करता हुआ, - अनेक प्रकार के कारणों के द्वारा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ, कर्मरूपी रज से बंधता है। (यहाँ विचार करो कि) इनमें से उस पुरुष के बन्ध का कारण कौन है? प्रथम, स्वभाव से ही जो बहुत से कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ है- ऐसा लोक बन्ध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो सिध्दों को भी बन्ध का प्रसंग आ जाएगा। काय-वचन-मन का कर्म भी बन्ध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यात संयमियों के भी बन्ध का प्रसंग आ जाएगा। अनेक प्रकार के कारण (इन्द्रियाँ) भी बन्ध के कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियों के भी बन्ध का प्रसंग आ जाएगा। सचित्त तथा अचित्त वस्तुओं का घात भी बन्ध कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जो समिति में तत्पर हैं, उनके (अर्थात जो यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं – ऐसे साधुओं के) भी बन्ध का प्रसंग आ जाएगा; इसलिए न्यायबल से ही यह सिध्द हुआ कि उपयोग में रागादि का करना बन्ध का कारण है।

तथा वही पुरुष समस्त तेल आदि स्निग्ध पदार्थ को दूर किए जाने पर बहुत धूलिवाले स्थान में शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है, छेदता है, भेदता है, सचित्त और अचित्त द्रव्यों का उपघात करता है- ऐसे नानाप्रकार के कारणों के द्वारा उपघात करते हुए उस पुरुष को धूल का बन्ध वास्तव में किस कारण से नहीं होता -यह निश्चय से विचार करो। उस पुरुष में जो वह तेल आदिकी चिकनाहट का अभाव होने से ही धूल इत्यादि नहीं चिपकती। इसीप्रकार बहुत प्रकार की चेष्टाओं में वर्तता हुआ मिथ्यादृष्टि (अपने) उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्मरूपी रज से लिप्त होता है, बंधता है। तथा बहुत प्रकार के योगों में वर्तता हुआ सम्यग्दृष्टि उपयोग में रागादि को न करता हुआ कर्मरज से लिप्त नहीं होता।

(गाथा 237-242)

Series

Samaysaar Drashtant Vaibhav

Category

Paintings

Medium

Oil on Canvas

Size

36" x 48"

Orientation

Landscape

Completion Year

01-Jul-2018

Gatha

237, 241, 242