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मुनिराज के हृदय में एक आत्मा ही विराजता है। उनका सर्व प्रवर्तन आत्मामय ही है। आत्मा के आश्रय से बड़ी निर्भयता प्रगट हुई है। घोर जंगल हो, घनी झाड़ी हो, सिंह – व्याघ्र दहाड़ते हों, मेघाच्छन्न डरावनी रात हो, चारों ओर अंधकार व्याप्त हो, वहाँ गिरिगुफ़ा में मुनिराज बस अकेले चैतन्य में ही मस्त होकर निवास करते हैं। आत्मा में से बाहर आये तो श्रुतादि के चिंतवन में चित्त लगता है और फिर अंतर में चले जाते हैं। स्वरूप के झूले में झूलते हैं। मुनिराज को एक आत्मलीनता का ही काम है। अद्भुत दशा है।
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Bol