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Title

Sansar Bhavana

संसार भावना:- अनंत सौख्य नाम दुःख त्यां रही न मित्रता ! अनंत दुःख नाम सौख्य प्रेम त्यां , विचित्रता !! उघाड़ न्याय नेत्र ने निहाल रे ! निहाल तुं ! निर्वृत्ति शीघ्रमेव धारि ते प्रवृत्ति बाल तुं !! सुग्री नगर के राजा बलभद्र और पटरानी मृगा के पुत्र को लोग मृगापुत्र कहकर पुकारते थे। एक दिन कुमार अपने झरोखे में बैठे थे, तब उनकी दृष्टि एक शांत तपस्वी साधु पर पड़ी। युवराज उस मुनि को निरख – निरखकर देख रहे थे। अचानक उन्हें जातिस्मरण हुआ। उस मृगापुत्र को पूर्वभव का स्मरण हुआ, शीघ्र ही मृगापुत्र विषय से विरक्त हुए और संयम की ओर आकृष्ट हुए। युवराज ने माता-पिता के समीप जाकर संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। कुमार के निर्वृत्तिपूर्ण वचनों को सुनकर माता-पिता शोकार्त होकर बोले, हे पुत्र! चारित्र का पालना बहुत कठिन है। जैसे तराजू से मेरु पर्वत तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चलपन से शंकारहित दश प्रकार के यति धर्म का पालना दुष्कर है। हे पुत्र! शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पाँच प्रकार के मनुष्यसम्बन्धी भोगों को भोगकर मृत्युयोगी होकर वृद्ध अवस्था में धर्म का आचरण करना। माता पिता के भोगसम्बन्धी उपदेश सुनकर मृगापुत्र बोले जिसकी विषय की ओर रुचि नहीं उसे संयम का पालन दुष्कर नहीं है। इस शरीर ने शारीरिक और मानसिक वेदना को आत्मारूप से अनन्त वार सहन किया है। जन्म और मरण ये भोग का धाम है। चतुर्गति रूप संसार अटवी में भटकते हुए मैंने अति रौद्र दुःख भोगे हैं। मैंने सर्व भवों में असाता वेदनीय भोगी है। वहाँ क्षणमात्र भी सुख न था। मृगापुत्र के वैराग्य भाव से संसार परिभ्रमण के दुःख को सुनकर माता-पिता ने पुत्र को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। आज्ञा मिलते ही मृगापुत्र समस्त प्रपंचो को लांघकर दीक्षा लेने के लिए निकल पड़े। वह ज्ञान से, आत्मचरित्र से, तप से और प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाओं की निर्मलता से अनुपमरूप से विभूषित हुए। अंत में वह महाज्ञानी युवराज मृगापुत्र सम्यक प्रकार से बहुत वर्ष तक आत्मचरित्र की सेवा करके एक मास का अनशन करके सर्वोच्च मोक्षगति में गये। तत्वज्ञान सदा ही संसार परिभ्रमण की निर्वृत्ति का पवित्र विचार करते हैं।

Series

Barah Bhavana

Category

Paintings

Medium

Oil on Canvas

Size

36" x 48"

Orientation

Landscape

Completion Year

12-Aug-2016

Bol

3