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संवर भावना:- राजा दशरथ और राम के पूर्वज ऐसे अयोध्या के महाराज कीर्तिधर महावैरागी और मोक्षगामी महात्मा थे। एक बार सूर्यग्रहण देखकर महाराजा कीर्तिधर को वैराग्य हुआ और उन्होंने जिनदीक्षा धारण करने की इच्छा व्यक्त की। मंत्रीगण और प्रधान पुरुषों की विनती अनुसार उन्होंने राजकुमार के जन्म के त्वरित बाद बालक राजकुमार को राजतिलक करके जैनेश्वरी मुनिदीक्षा धारण करली। महाराज का मुनि होना महारानी सहदेवी को पसंद नहीं था। उन्हें मुनिलिंग के प्रति घृणा थी। इसलिए महारानी ने पुत्र सुकौशल को मुनिदर्शन से दूर ही रखा। कई साल पश्चात विहार करते-करते मुनिराज कीर्तिधर अयोध्या के उद्यान में पहुंचे और आहार के लिए उन्होंने नगर में प्रवेश किया। राजमाता सहदेवी को लगा कि मुनि को देखकर पुत्र सुकौशल भी संसार त्याग करके मुनिदीक्षा धारण करेगा, तो मैं किस के सहारे से जीऊँगी; ऐसा विचार करके महारानी ने द्वारपाल को बुलाकर मुनिराज को नगर के बाहर निकाल देने की आज्ञा की। मुनिराज कीर्तिधर का ऐसा अविनय देखकर सुकौशल की धायमाता दुःखी होकर रोने लगी। सुकौशल के पूछने पर धायमाता ने मुनिराज सुकौशल के पिता होने की बात कही। यह सुनकर सुकौशल मुनिराज के दर्शन के लिए निकल पड़े। द्वारपाल के प्रवेश न देने, दर्शन न देने के कारण लज्जित होकर क्षमायाचना करके खेद व्यक्त किया और आत्महित का उपाय जानने की जिज्ञासा व्यक्त की। गंभीर स्वर में मुनिराज ने कहा यह मनुष्य जन्म भवभ्रमण का अभाव करने के लिए है, स्वपर भेद विज्ञान से शुद्ध स्वभाव का अवलम्बन करके वीतरागदशा प्रकट होती है। इससे उत्पन्न गलिच्छ कर्मों को रोकना ही संवरदशा है। संवरदशा का उपदेश सुनकर सुकौशल महाराज ने पुत्र को राज तिलक करके वैराग्य पूर्वक जिनदीक्षा धारण की। पति के बाद पुत्र के जिनदीक्षा धारण करने की बात से सहदेवी को बहुत दुख हुआ और आर्तध्यान के बुरे भावों से मरकर तिर्यंच योनी में बाघिन हुई। वह बाघिन महाक्रोध से कोपायमान थी और भयंकर गर्जना करती वन में एकाकी मुनिराज सुकौशल के पास आ पहुंची। मुनिराज ध्यानमग्न थे। बाघिन महावेग से उछलकर मुनि के शरीर को खाने लगी। खाते-खाते उसका ध्यान मुनि के हाथपर जो पद्मचिन्ह था उस पर नजर पड़ी। पद्मचिन्ह देखते ही पूर्वभव का जातिस्मरण हुआ और वह दुखी हुई। उसी समय कीर्तिधर मुनिराज ने बाघिन को धर्म वचनों से सम्बोधित करते हुए कहा – हे पापिनी! तू सुकौशल की माता सहदेवी थी और तू ही अपने पुत्र का भक्षण करती है, इससे बड़ी संसार की विचित्रता क्या हो सकती है? हे सुकौशल माता! संसार ही समग्र दुःख का कारण है इसलिए संवरदशा का अवलम्बन कर। “पूर्वस्मरण और मुनि कीर्तिधर के उद्बोधन से शांत हुई बाघिन ने निराहार व्रत अंगीकार किये और संवरदशा का चिंतन कर स्वर्ग में गयी और संवर साधना में लीन सुकौशल मुनि ने उपसर्ग विजेता बनकर केवलज्ञान प्रगट करके अंतर्मूर्हत में मोक्षदशा भी प्रकट करली। संवर में पराक्रमी ऐसे संवरवीर मुनि सुकौशल को शत शत प्रणाम।
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