In today’s milestone of destiny, the two brothers are ready to fight each other to acquire the material wealth their father Adinatha had abandoned thousands of years ago after likening it to Crow faeces. Both armies had earlier announced that the battle would be at an individual level.
On the battlefield, Bāhubalī stood firm like an unshakeable mountain, displaying a serious and mighty demeanor. On the other hand, the ministers informed Emperor Bharata about King Bāhubalī’s arrival and requested him to proceed to the battlefield. Bharata stood before Bāhubalī face to face. Emperor Bharata said, "Brother, what is the benefit of engaging in this unnecessary battle? I have not taken any of your possessions, nor have you taken mine. We are two sons of the same father. Do these actions suit us? Do brothers have hatred for each other? I called you just to meet you in person. What is the reason for this anger? You might think I'm saying all this out of fear of battle, but that is untrue. I will certainly fight, but I want to settle the conflict in my mind first. If an enemy stood before me, I would have defeated and chased him away long ago. But you are my brother; how can I face you in battle? I'm older than you; hence, I called you to meet you in person. Where did I go wrong? If you defeat me, will you gain fame? And, if I defeat you, will I gain any glory? No, brother, we both will be embarrassed. Go, you win; I accept defeat. After hearing Bharat’s words, there was an uproar among the ministers, the entire army, and divine beings. They said, "Emperor! What are you saying?” Turning towards Bāhubalī, Bharata said, “Brother, I am not saying this for the sake of saying or out of grief. I am fully aware of your capability. Listen, Listen, everyone in the army, everyone listen. Bāhubalī! You are bound to win the Drishti yuddha. You are 25 dhanusha (one dhanusha equals 6 feet) taller than me. While you can easily see my face, I must look upwards, which is difficult and will lead to my defeat.” Emperor Bharata continued, “Brother, your victory is certain in Jala yuddha, too, because of your height. I will only be able to throw water up to your chest while you are capable of drowning me in water. Hence, my defeat is certain.” Emperor Bharata said, “My brother! There is no need for Malla yuddha at all. Our father has named you Bhujbali (~ Bāhubalī). Who is capable of defeating you? Since you are much stronger, you can easily lift me. My younger brother, now compose yourself!” By saying this, Emperor Bharata gave the world the finest example of brotherly love.
Bharat again said, “I neither desire the splendour of the six continents, the capability of the Chakra ratna, infinite celestial beings (at my command) nor am I greedy. I am just experiencing these as an outcome of the virtuous deeds that I committed in the past. Please accept them” Bharat called the Chakra ratna and said, “O Chakra ratna! I no longer need you. Bāhubalī now owns you.” Saying this, Emperor Bharata sent the Chakra ratna towards Bāhubalī. Despite Emperor Bharata's repeated requests, the Chakra ratna did not move towards Bāhubalī. In the end, Bharat forcefully pushed it toward Bāhubalī. But, it stopped after moving some distance. Although the battle never took place, victory and defeat had already occurred – Emperor Bharata's love was victorious, and King Bāhubalī's anger was defeated.
भरत-बाहुबली युद्ध – भाग्य अत्यंत बलवान है, इसके आगे ना कोई चक्रवर्ती, ना कामदेव, ना कोई देव, इन्द्र या स्वयं जिनेन्द्र भगवान भी अपनी चलाने में असमर्थ हैं। इसी भाग्य के पडाव में आज दो भाई एक-दूसरे के सामने उस जड संपदा की प्राप्ति हेतु लडने को तैयार हो गये हैं, जिसे उन्हीं के पिता आदिनाथ ने काकबीट समान जानकर हजारों वर्ष पूर्व ही छोड दिया था। दोनों पक्षों की सेना में इस बात की घोषणा पूर्व में ही हो चुकी थी कि युद्ध दोनो भाईयों में ही होगा, सेना उसमें भाग नही लेगी परन्तु कलिकाल के प्रारंभ होने की सूचना स्वरूप उस युद्ध को देखने सम्पूर्ण सेना युद्धस्थल में पहुँच चुकी है, सम्पूर्ण आकाश देव-विमानों और विद्याधरों से भर चुका है, सारी धरती इस दुर्भाग्य पूर्ण घटना से काँप उठी है परन्तु किसी को भी भविष्य में होने वाले मंगल की भनक तक नही है और अब युद्ध प्रारंभ होने में बस कुछ ही देरी है। मंत्रियों ने जाकर बाहुबली को सूचना दी कि युद्ध के लिये प्रस्थान करने का समय आगया है, तब बाहुबली युद्ध के लिये सज्ज होते हुए हाथी से इसप्रकार उतरे कि मानो वे कह रहे हों कि मुझे अब इनकी आवश्यक्ता नही, मैं तो अब ईर्या समिति पूर्वक बिना वाहनादिक के चलने हेतु सज्ज हूँ। रण में खडे बाहुबली पर्वत के समान अचल, गंभीर और बलशाली दिखाई दे रहे थे और दूसरी ओर भरत को भी बाहुबली के आगमन की सूचना दी और चलने का निवेदन किया तो उन्होंने कहा कि मैं ही आगे अब उससे बात करूँगा, आप निश्चिंत रहें और इसप्रकार कहकर वे अपनी पालकी में सवार होकर रणभूमि में पहुँचे। भरत को मन ही मन भय था कि यदि बाहुबली हार गया तो वो अपमान महसूस करेगा तब घर में नही रुकेगा निश्चित ही सबकुछ त्यागकर दीक्षा लेकर चला जायेगा। मैं अपने बाकी भाईयों की भाँति इसे नहीं खोना चाहता, अतः किसी अन्य उपाय से उसे समझाना पडेगा। भरत धर्मयुद्ध करने नही आये थे वे तो बाहुबली के मन में चल रहे द्वंद्व को जीतने आये थे अतः उनकी वेषभूषा बाहुबली के समान युद्ध वाली नही अपितु राजा की ही थी। मंत्री-पुरोहितों ने कहा कि महाराज! ये क्या? आप इस वेष में युद्ध कैसे करेंगे, भरत उन्हें सांत्वना देते हुए हसकर आगे बढ गये। बाहुबली ने दूर से ही भरत को आते हुए देखा तब विचार करने लगे कि अभी नही युद्ध प्रारंभ होने पर ही भरत का मुख देखूँगा इसप्रकार बालक के समान मुख फ़ेरकर खडे हो गये, भरत ने जब यह जाना तो वे हसकर आगे बढने लगे और बाहुबली के समक्ष आकर खडे हो गये। भरत में विचार कर रहे थे कि त्रिलोकाधिपति की संतान होकर भी हम दोनों ऐसे जगत निंदनीय कार्यों में प्रवृत्ति कर रहे हैं। दोनों भाई रणभूमि में खडे मेरु पर्वत के समान सुशोभित हो रहे हैं सम्पूर्ण सेना, देवगण आदि उनके सौन्दर्य की प्रशंसा करते विराम नही ले रही थी और अब सभी उनके शक्ति प्रदर्शन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। गाजे-बाजे का शोर बंद हुआ परन्तु भरत ने युद्ध भेरी बजाने से मना कर दिया, उन्होंने कहा कि अभी मुझे अपने भाई से कुछ बातें करनी है। सभी ने उनके इस कार्य की अनुमोदना की और भरत ने बोलना प्रारंभ किया – “भाई! यह निष्कारण युद्ध करने का क्या लाभ? तुम्हारी कोई सम्पत्ति मैंने नही छीनी, ना तुमने मेरी। हम एक ही पुत्र की दो संतानें, हमें यह कहाँ शोभा देता है? क्या भाईयों में भी कभी द्वेष होता है? मैंने तो तुम्हें मात्र देखने के विचार से बुलाया था तब इतना क्रोध क्यों? तुम विचार कर रहे होगे कि मैं युद्ध से डरकर यह सब कह रहा हूँ परन्तु ऐसा नही है, युद्ध तो मैं अवश्य करूँगा, परन्तु पहले मन में चल रहे युद्ध से तो लड लूँ। यदि कोई शत्रु मेरे समक्ष होता तो मैं उसे कबका हराकर भगा देता परन्तु तुम तो मेरे सगे भाई हो, तुम्हें किसप्रकार मैं युद्ध में अपने सन्मुख देख सकता हूँ। मैं तुमसे बडा हूँ इसीलिये तो मैंने तुम्हें अपने पास बुलाया था तो क्या गलत किया। लोक की यही रीत है कि छोटे ही बडे के पास जाते हैं, इसमें मैंने तुम्हारा कौनसा अपमान किया है? ध्यान रहे! हम दोनो ही बलवान है, कौन जीते, कौन हारे? परन्तु ये सब लोग तमाशा देखने वाले दर्शक हैं। मुझे तुम जीत लोगे तो क्या तुम्हें कीर्ति मिल जायेगी और मैं तुम्हें जीत लूँगा तो क्या मुझे यश मिल जायेगा? नहीं भाई, हम दोनों ही लज्जित होंगे। तुम युद्ध के लिये आये हो ना? जीत की अभिलाषा हेतु आये हो ना? सामान्य लोगों की तरह लडने की क्या आवश्यक्ता? जाओ तुम जीते मैं हारा। भरत के वचन सुनकर सम्पूर्ण सेना, मंत्री-मण्डल, देवों में खलबली मच गयी, वे कहने लगे कि सम्राट ये आप क्या कह रहें हैं, इस धरती पर ऐसा कोई मनुष्य नही जो आपके समक्ष भी खडा हो सके, हारना तो बहुत दूर कि बात है, आप किसप्रकार हार सकते हैं? भरत बोले कि आप सब यह क्या कह रहें हैं? आप सब तो मेरे अंतरंग को जानते हैं, मैं अपने भाई से किसप्रकार युद्ध कर सकता हूँ? बाहुबली की ओर मुडकर पुनः कहने लगे कि भाई! उपचार के लिये या दुखी मन से नही कह रहा हूँ। तुम्हारे सामर्थ्य को मैं भली प्रकार जानता हूँ, सुनो, सारी सेना सुनो, आप सभी सुनो। दृष्टि युद्ध में तुम्हारी जीत है क्योंकि तुम मुझसे 25 धनुष अधिक ऊँचे हो, इसलिये तुम मुझे सरलता से देख सकते हो परन्तु मुझे ऊर्ध्वदृष्टि करके देखना होगा अतः मुझे कष्ट होगा और मैं हार जाऊँगा। यह बात सुनकर मन्त्रीगण चर्चा करने लगे कि जो सम्राट सूर्यबिंब में विराजमान जिनप्रतिमाओं के दर्शन करने की सामर्थ्य रखते हैं उनके लिये 25 धनुष की क्या कीमत? यह केवल अपने भाई को समझाने हेतु कह रहे हैं। भरत आगे बोले “भाई! जलयुद्ध में भी तुम्हारी ही विजय है क्योंकि तुम मुझसे ऊँचे हो, मैं तुम्हारी छाती तक ही पानी फेंक सकता हूँ परन्तु तुम तो मुझे डुबा सकते हो, ऐसी अवस्था में मेरी हार निश्चित ही है।” मन्त्रीगण यह सुनकर पुनः विचारने लगे कि अतुलनीय बल के धारी भरत चाहे तो आकाश तक पानी उछाल दें तब ये 25 धनुष की क्या ऊँचाई? यह केवल अपने भाई को समझाने हेतु कह रहे हैं। भरत पुनः बाहुबली से बोले “और भाई! मल्लयुद्ध की तो आवश्यक्ता ही नही, पिताश्री ने तुम्हारा नाम भुजबली रखा है, तुम्हें कौन बाहुबल में परास्त कर सकता है, इसमें तुम प्रबल हो अतः सहजता से तुम मुझे उठा सकते हो”। मन्त्रीगण विचारने लगे कि जिसने एक अंगुली के बल से करोडों सैनिकों, लाखों हाथी-घोडों के बल को तोड दिया उन्हें बाहुबली परास्त कर सके, कदापि संभव नहीं, जिन चक्रवर्ती की पटरानी के आहार का एक ग्रास प्रमाण भी सारी सेना ना पचा पाये, उसे ये कामदेव भला क्या चुनौती दे सकता है। इसप्रकार सर्व सेना में बातचीत होने लगी। भरतेश्वर बोले कि भाई! जब अपने मुख से मैंने कहा कि मैं हार गया, फिर क्रोध करने की कहाँ आवश्यक्ता रह गय है? अनुज! अब हृदय को शांत करो! और इसप्रकार कहते हुए भरत ने भ्रातृप्रेम का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण जगत के समक्ष प्रस्तुत किया। भरत ने जैसे ही यह शब्द कहे कि मैं हार गया वैसे ही सर्वत्र आकाश में अंधकार छा गया, अशुभ संकेत मिलने लगे, सम्पूर्ण सेना भयभीत होने लगी और हो भी क्यों ना? आज सम्राट का हृदय इतना अशांत और निराश जो है। बाहुबली ने अभी तक भी भरत की ओर मुख नही किया था परन्तु उन्हें यह सब सुन-समझकर अपने किये पर पछतावा बहुत अधिक हो रहा था। भरत पुनः कहते हैं कि “मुझे ना षटखण्ड के वैभव की, ना चक्ररत्न के सामर्थ्य की, ना असंख्य देवों की अभिलाषा है, ना लोभ है। मैं तो इन्हें पूर्वोपार्जित पुण्योदय जानकर भोग रहा हूँ। तुम इन्हें स्वीकार करो, अब तुम राजा हो और मैं तुम्हारे अधीनस्थ रहकर राज्य करूँगा। ये अयोध्या, ये षटखण्ड का वैभव अब सब तुम्हारा… मैं दिग्विजय तुम्हारे लिये ही करके लाया था, सो संभालो। तुमको, मैं भाई हूँ इसका विचार नही; परन्तु मुझे, तुम मेरे भाई हो इसका विचार सदा ही है, इसलिये तुम्हें ही देखकर मैं संतुष्ट रहूँगा।” पुनः भरतेश ने चक्ररत्न को बुलाकर कहा कि “हे चक्ररत्न! मुझे अब तुम्हारी आवश्यक्ता नही, तुम्हारे अधिपति अब बाहुबली हैं” इसप्रकार कहते हुए भरत ने चक्ररत्न बाहुबली की ओर भेजा परन्तु भले ही भरत कुछ भी समझें अथवा कहें परन्तु उनका पुण्य अभी भी चक्रवर्ती का ही है और उनके समक्ष बाहुबली का पुण्य अत्यंत हीन है। भरत के बार-बार कहने पर भी चक्ररत्न बाहुबली के पास नही गया अंत में भरत ने बलपूर्वक चक्र को बाहुबली की ओर धक्का दिया परन्तु चक्ररत्न थोडा ही आगे पहुँचकर खडा हो गया। चक्ररत्न सदृश पुण्यपदार्थ का अपमान हुआ अतः पृथ्वी काँप उठी, आकाश में बादल छा गये, सूर्य छिप गया, आठों दिशाओं से रुदन की ध्वनि सुनाई देने लगी, सर्वत्र हाहाकार मच गया। इसप्रकार के दृश्य देखकर व वचनों को सुनकर बाहुबली मन ही मन अत्यंत लज्जित हुए और स्वयं से हुए महापराध का बोध उन्हें अतिशीघ्र हुआ। वास्तव में युद्ध तो नही हुआ परन्तु विजय–पराजय तो हो गयी थी, विजय; भरत के प्रेम की और पराजय; बाहुबली के क्रोध की।