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मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारीदेव
नियमसार श्रीकुन्दकुन्द आचार्य के सबसे प्रसिद्ध अध्यात्म ग्रंथों में से एक है। इस नियमसार की संस्कृत टीका श्री पद्मप्रभमलधारीदेव द्वारा लिखी गई थी। इनका समय 1000 ईस्वी के लगभग माना जाता है। वह श्री अमृतचन्द्र आचार्य से पीछे हुए थे श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ने नियमसार पर अपनी टीका में अमृतचन्द्र आचार्य के कुछ छंदों को उद्धृत किया है और उल्लेख भी किया है।
यह नियमसार परमागम मुख्यतः मोक्षमार्ग के निरूपचार निरुपण का अनुपम ग्रंथ है। “नियम” अर्थात जो अवश्य करने योग्य हो अर्थात रत्नत्रय। ‘नियमसार’ अर्थात नियम का सार अर्थात शुद्ध रत्नत्रय। उस शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति परमात्मतत्व के आश्रय से ही होती है। निगोद से लेकर सिद्धि तक की सर्व अवस्थाओं में …. अशुभ, शुभ या शुद्ध विशेषों में … विद्यमान जो नित्यनिरंजन टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप शुद्धद्रव्य सामान्य वह परमात्मतत्व है वही शुद्ध अन्तः तत्त्व, कारण-परमात्मा, परम्-पारिणामिकभाव आदि नामों से कहा जाता है। इस परमात्मतत्त्व की उपलब्धि अनादिकाल से अनंतानंत दुःखों का अनुभव करनेवाले जीवों ने एक क्षणमात्र भी नहीं की और इसलिए सुख प्राप्ति के उसके सर्व प्रयत्न (द्रव्यलिंगी मुनि के व्यवहार-रत्नत्रय सहित) सर्वथा व्यर्थ गये हैं। इसलिए इस परमागम का एकमात्र उद्देश्य जीवों को परमात्मतत्त्व की उपलब्धि अथवा आश्रय करवाना है।
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