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एकत्व भावना:- नमिराज विदेह देश के अधिपति थे। वे अनेक यौवनवती मनोहारिणी स्त्रियों के समुदाय से घिरे हुए थे। दर्शन मोहिनी के उदय न होने पर भी वे संसार-लुब्ध जैसे दिखाई देते थे। एक बार उनके शरीर में दाहज्वर रोग की उत्पत्ति हुई। मानों समस्त शरीर जल रहा हो ऐसी जलन समस्त शरीर में व्याप्त हो गयी। रोम-रोम में हजार बिच्छुओं के डसने जैसी वेदना के समान दुःख होने लगा। वैद्य-विद्या में प्रवीण पुरुषों के औषधोपचार का अनेक प्रकार से सेवन किया, परन्तु वह सब व्यर्थ हुआ। यह व्याधि लेशमात्र भी कम न होकर अधिक ही होती गयी। उसको दूर करने वाले पुरुष की खोज चारों तरफ होने लगी। अंत में एक महाकुशल वैद्य मिले, उसने मलयागिरि चन्दन का लेप करना बताया। रूपवती रानियाँ चंदन घिसने में लग गई। चंदन घिसने से प्रत्येक रानी के हाथ में पहने हुए कंकणों के समूह से खलभलाहट होने लगी। मिथिलेश के अंग में दाहज्वर की असह्य वेदना तो थी ही दूसरी वेदना इन कंकणो के कोलाहल से उत्पन्न हो गई। जब यह खलभलाहट उनसे सहन न हो सकी तो उन्होंने रानियों को आज्ञा दी कि चंदन घिसना बन्द करो तुम क्या शोर करती हो? मैं एक महाव्याधि से ग्रसित हूँ ही, और दूसरी व्याधि के समान यह कोलाहल हो रहा है, यह असह्य है। तब सब रानियों ने केवल एक-एक कंकण को मंगलस्वरूप रखकर बाकी कंकणों को निकाल डाला इससे होता हुआ खलभलाहट शांत हो गया। नमिराज ने रानियों से पूछा, क्या तुमने चंदन घिसना बन्द कर दिया? रानियों ने कहा कि नहीं, केवल कोलाहल शांत करने के लिए अब हमने कंकणों के समूह को अपने हाथ में नहीं रखा इसलिए कोलाहल नहीं होता। रानियों के इतने वचनों को सुनते ही नमिराज के रोमरोम में एकत्व उदित हुआ – एकत्व व्याप्त हो गया, और उनका ममत्व दूर हो गया। अहो चेतन! तु मान कि तेरी सिध्दि एकत्व में ही है। अधिक के मिलने से अधिक ही उपाधि बढ़ती है। संसार में अनन्त आत्माओं के संबंध से तुझे उपाधि भोगने की क्या आवश्यकता है। उसका त्याग कर और एकत्व में प्रवेश कर देख! अब यह एक कंकण खलभलाहट बिना कैसी उत्तम शान्ति में रम रहा है। जब अनेक थे तब यह कैसी अशान्ति का भोग कर रहा था इसीतरह तु भी कंकण रूप है। उस कंकण की तरह तू भी जब तक स्नेही- कुटुम्ब रूपी कंकण-समुदाय में पड़ा रहेगा तब तक भवरूपी खलभलाहट का सेवन करना पड़ेगा और यदि इस कंकण की वर्तमान स्थिति की तरह एकत्व की आराधना करेगा तो सिद्धगति रूपी महापवित्र शान्ति को प्राप्त करेगा।
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