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धर्म भावना:- रावण को हराकर रामचन्द्रजी सीता सहित अयोध्या आ गये। गर्भ के भार से माता सीता दुर्बल शरीर वाली हो गयी थी पर उनका मुख का तेज बढ़ गया था। रामजी के पूछने पर सम्मेदशिखर आदि तीर्थों की यात्रा करने की मनीषा सीता ने व्यक्त की। इसी दौरान प्रजा के लोग रामजी से मिलने आ गये। आने का कारण पूछने पर लोगों ने बताया कि घर-घर में यही एक अपवाद कथा चल रही है कि रावण सीता को हरण करके ले गया फिर भी राम उन्हें घर ले आये। तब फिर और लोगों को ऐसा करने में क्या दोष है। यह सुनकर रामचंद्र जी दुखी हो गये। तब लक्ष्मण के बहुत समझाने पर भी सीता को त्यागने के अपने निर्णय पर रामचंद्रजी दृढ रहे। उन्होंने सेनापति कृतांतवक्र को बुलाकर सम्मेदशिखर आदि तीर्थों की यात्रा करवा के सीता को सिंहनाद वन में छोड़ आने की आज्ञा दी। तीर्थों की यात्रा करवाके जब सीता जी का रथ सिंहनाद वन में पहुँचा तब रथ रोककर कृतांतवक्र रोने लगे। सीताजी के बहुत समझाने पर कृतांतवक्र ने सारी बात बताई और खुद को धिक्कारते हुए कहा मेरे समान निर्दयी और कौन होगा। मैं पराधीन हूँ इसलिए जो स्वामी ने कहा वही मुझे करना पड़ा। आज यह पापकर्म कर रहा हूँ। सीता ने कहा मेरी वजह से आप दुखी नहीं होना। मेरे ही अशुभ कर्म के उदय के कारण यह आपत्ति आयी है। उन्होंने कहा मुझे मेरा वीतराग धर्म और धर्म प्रभावना का चिंतवन ही सहायक है। कुछ समय बाद लक्ष्मण के साथ विभीषण, सुग्रीव, हनुमान सभी ने रामजी को कहा कि जानकी सीता को अयोध्या ले आये। फिर भी लोकापवाद के कारण सीता को नहीं बुला पाये। रामचंद्र जी ने वहाँ बोला कि सीता परीक्षा देकर शुद्ध होकर घर में प्रवेश कर सकती हैं। सीता ने कहा, “हे नाथ आप कहे तो में अवश्य अग्निज्वाला में प्रवेश करूँगी। “रामचंद्रजी ने अग्निकुंड में प्रवेश करने की आज्ञा दी। सीता ने कहा हे अग्निदेवता! अगर मैंने रामजी के सिवाय किसी अन्य पुरूष का चिंतन भी किया हो तो मुझे जलाकर भस्मसात कर दे। सीता ने धर्म भावना का चिंतवन करके और णमोकार मन्त्र के उच्चारण के साथ अग्निकुंड में प्रवेश किया। शील और धर्म के प्रभाव से देवों ने आकर सीता की सहायता की। अग्निकुंड कमलयुक्त सरोवर बन गया। उसके बीचोंबीच सिंहासन रचाकर देवांगनाओं ने आकर सीता को सिंहासन पर विराजमान किया। चारों ओर सीता की और धर्मभावना की जयजयकार हुई। “धर्मो रक्षति रक्षितो” इस सिद्धांत को सिद्ध करनेवाली धर्ममूर्ति माता सीता को शत शत प्रणाम।
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