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अशुचि भावना:- खाण मूत्र ने मलनी, रोग जरानुं निवासनुं धाम; काया एवी गणि ने, मान त्यजीने कर सार्थक काम।। सनतकुमार चक्रवर्ती के वर्ण और रूप की प्रशंसा चारो ओर फैली थी। प्रशंसा सुनकर दो देव शंका निवारण के लिए ब्राह्मण का वेश धारण करके सनतकुमार के अंतःपुर में गये। उस समय सनतकुमार के शरीर पर उबटन लगा हुआ था। वे एक छोटा पंचा पहने हुए थे और स्नान मंजन करने बैठे थे। ब्राह्मण के रूप में आये हुए देवों को उनका मनोहर मुख, कांचन वर्ण की काया, चन्द्र जैसी कांति देखकर बहुत आनन्द हुआ और उन्होंने सिर हिलाया। चक्रवर्ती के पूछने पर देवों ने कहा सिर हिलाने का कारण वह है कि जैसा लोक में कहा जाता है वैसे ही आपका रूप है। सनतकुमार अपने रूप की प्रशंसा सुनकर प्रभुत्व में आकर बोले, जब मैं राजसभा में वस्त्रालंकार धारण करके सज्ज होकर सिंहासन पर बैठता हूँ तब मेरा रूप देखने योग्य होता है। जब सनतकुमार उत्तम वस्त्रालंकार धारण करके सज्ज होकर सिंहासन पर बैठे थे तब वहां वे देवता ब्राह्मण के रूप में आये। अद्भुत रूप से आनन्द पाने के बदले मानो खेद हुआ हो, ऐसे उन्होंने अपने सिर को हिलाया। पहले समय की अपेक्षा दूसरी तरह सिर हिलाने का कारण चक्रवर्ती ने पूछा तब देवों ने कहा कि इस रूप में और उस रूप में जमीन आसमान का फेर हो गया है। चक्रवर्ती ने जब स्पष्ट समझाने को कहा तब देवों ने कहा हे अधिराज! आपकी काया पहले अमृततुल्य थी, इस समय जहर के तुल्य है। जब आपका अंग अमृततुल्य था तब आनन्द हुआ और इस समय जहर के तुल्य है इसलिए खेद हुआ। उन्होंने बात को सिध्द करने के लिए कहा कि, आप ताम्बूल को थूंके, त्वरित उसपर मक्खियां बैठेगी और वे परलोक पहुँच जाएगी। सनतकुमार ने उसकी परीक्षा की तो वह बात सत्य निकली। पूर्व कर्म के पाप के भाव से इस काया के मद की मिलावट होने से चक्रवर्ती की काया विषमय हो गई थी। विनाशी और अशुचिमय काया के ऐसे प्रपंच को देखकर सनतकुमार के अंतःकरण में वैराग्य उत्पन्न हुआ। महल की प्रभुता त्यागकर वे चल पड़े। साधु रूप में विचरते समय उनको कुष्ट महारोग हो गया। उनके सत्यत्व की परीक्षा लेने के लिए एक देव वैद्य के रूप में आये और साधु से रोग निवारण करने के लिए पूछा तब साधु ने कहा “हे वैद्य! कर्मरूपी रोग महाउन्मत्त है, इस रोग को दूर करने की यदि तुम्हारी सामर्थ्य हो तो खुशी से मेरे रोग को दमन करो। यदि सामर्थ्य न हो तो यह रोग को भले ही रहने दो। “देव ने कहा, यह रोग दूर करने के लिए मुझमें सामर्थ्य नहीं है। साधु ने अपनी लब्धि की परिपूर्ण प्रबलता से थूंकवाली अंगुली करके उसे रोगपर फेरी की तत्काल रोग का नाश हो गया और काया जैसी थी वैसी हो गयी। उस समय देव ने अपने स्वरूप को प्रकट किया और वन्दन करके चला गया। जिस काया के प्रत्येक अंग में रोग का भंडार है, मलमूत्र, विष्टा, हाड, माँस और श्लेष्म से जिसका ढाँचा टिका हुआ है, केवल त्वचा से जिसकी मनोहरता है, उस काया का मोह सचमुच विभ्रम है। यह देह तो सर्वथा अशुचिमय ही है।
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Bol