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देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक–ये चारों गतियाँ सदा ही हैं, जीवों के परिणाम का फल हैं, कल्पित नहीं है। जिसे, अपनी सुविधा साधने में बीच में असुविधा करनेवाले कितने जीवों को मार डालना तथा कितने काल तक ऐसी क्रूरता करना उसकी कोई सीमा नहीं है उसे उन अतिशय क्रूर परिणामों के फलरुप जहाँ अपार दुःख भोगना पडत़ा है उस स्थान का नाम नरक है। लाखों खून करनेवाले को लाख बार फाँसी मिलेs ऐसा तो इस लोक में नहीं होता। उसे अपने क्रूर भावों का जहाँ पूरा फल मिलता है उस अनन्त दुःख भोगने के क्षेत्र को नरक कहा जाता है। उस नरकगति के स्थान मध्यलोक के नीचे हैं और शाश्वत हैं। उसे युक्ति एवं न्याय से बराबर साबित किया जा सकता है। ॥७९॥
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Bol